Friday, September 5, 2008

लो आई याद फ़िर बचपन की ( शिक्षक-दिवस पर)

चिट्ठाजगत
मेरा बचपन पिलानी जैसे एक छोटे शहर में बीता,आज पिलानी शिक्षा के नाम पर प्रचलित है,मगर उस वक्त स्कूल में बस पढ़ाई होती थी,जगह की कमी थी, उसी माहौल में हम पढे़ जब बैठने को कुर्सी या टेबल नही थी,पेड़ के तने से लगा एक ब्लैक बोर्ड था और हमारी टीचर की कुर्सी के आगे बिछी एक दरी,और लम्बा चौड़ा खुला आसमान। आज उन्ही टीचर को समर्पित मेरी कविता है,मेरी पहली टीचर( पद्मा मैडम) जो आज इस दुनियां में नही हैं एक बूढ़ी अम्मा सी जिन्हे हम कभी-कभी सताने के लिये ताई भी कहते थे, जो हमे माँ सा दुलार भी देती थी, तो मार भी देती थी, उस वक्त सजा के नाम पर होती थी, मैदान में पड़े पत्थरो की सफ़ाई, किन्तु उस माहौल मे भी डर नही था,उस मार में भी प्यार होता था, एक्स्ट्रा पढ़ाई का कोई खर्च नही होता था,सीधे-सीधे कहा जाये तो शिक्षा बिकती नही थी,दान की जाती थी, और आज यह कविता मेरी टीचर को मेरी गुरू दंक्षिणा ही है...

मेरी प्यारी टीचर

छाता लेकर कड़ी धूप में टीचर जी जब आती थी,
घने पेड़ की छाँव तले वो हमको रोज पढ़ाती थी॥

कोई लगाता था झाड़ू,
तो कोई पानी लाता था,
बुहार जगह को सारी,
कोई दरी बिछाता था,
एक कौने से पकड़ के कुर्सी टीचर जी लगाती थी,
घने पेड़ की छाँव तले वो हमको रोज पढ़ाती थी॥

कभी सिखाती क ख ग,
तो कभी दो का पहाड़ा,
गलती हो जाने पर उनका
मोटा डण्डा दहाड़ा,
खाकर डण्डा हम रोते तब प्यार बहुत ही करती थी,
घने पेड़ की छाँव तले वो हमको रोज पढ़ाती थी॥

बैठ दरी पर हम सब बच्चे
भरी दुपहरी पढ़ते थे,
ठण्डी-ठण्डी हवा के झोंके,
तब ऎ सी जैसे लगते थे,
कभी-कभी, बैठे-बैठे ही टीचर जी सो जाती थी,
घने पेड़ की छाँव तले वो हमको रोज पढ़ाती थी॥

झूठ कभी तुम नही बोलना,
सच का पाठ पढ़ाती थी,
सदा बड़ो की सेवा करना,
हरदम यह समझाती थी,
माँ जैसी ही लगती थी जब हमको गले लगाती थी,
घने पेड़ की छाँव तले वो हमको रोज पढ़ाती थी॥

टीचर जी आप कहाँ गईं,
हम याद बहुत ही करते है,
अक्सर अपने बच्चों से जब,
बातें बचपन की करते हैं,
आज पिलादो फ़िर वो अमृत जो शिक्षा में मिलाती थी,
घने पेड़ की छाँव तले वो हमको रोज पढ़ाती थी॥


सुनीता शानू

ऎसा नही की आज ऎसे टीचर नही हैं मगर,
हर कौने में दुकान लगी है,
सब्जी-भाजी संग सजी है,
गुरू दंक्षिणा भी है भारी,
शिक्षा बन बैठी महामारी,
कहते थे जो कल हमेशा,
पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब
कहते है वो आज ये ऎसा
पढ़-लिख कर भी करोगे खराब॥


...

Friday, March 28, 2008

पहली पोस्ट

आज पहली पोस्ट है यह...मै अक्सर सोचती हूँ क्या इश्वर है...हर बार पलट कर मेरी ही आवाज मेरे कानों में पलट कर आती है क्या इश्वर है???
एक गीत जो बचपन में मै बहुत गाया करती थी याद आता है...

"उसको नही देखा हमने कभी...ओ माँ

ओ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी"



और एक बाल मन माँ को ही भगवान मान लेता है...और इसके बाद तो यह सिलसिला ही हो गया कि मै अपनी माँ की शक्ल में ही खो जाने लगी, आज भी सच यह है कि इश्वर की हर मूरत में चेहरा मुझे मेरी माँ का नजर आता है...



माँ ने बचपन में एक छोटा सा भजन सुनाया था क्या आप पढ़ना चाहेंगे? आज भी वह भजन मेरे मन में गूँजता रहता है...



शरणागत को हैं बचाती सदा

फ़िर कैसे हमें न बचाओगी माँ



हम छोड़ेगें चरण तुम्हारे नहीं

जब तक न दया तुम धारोगी माँ



बन जाती है बिगड़ी बातें सभी

जरा सी दया कर देती हो माँ



भयभीत कभी होते ही नहीं

जिनको निज गोद में लेती हो माँ



यह भजन कहते-कहते हमेशा याद आ जाती है माँ...और मै इश्वर से प्रार्थना करने लगती हूँ कि मुझे माफ़ करना... तू मेरी माँ से बढ़ कर नही...



सुनीता शानू